Why Indians Neglect Mental Health: Cultural, Social and Systemic Barriers
Fun Fact: Out of the 143 countries surveyed, India ranks 126th in the World Happiness Report. Mental health is not a priority for Indians, but why?
भारत खुशहाली रिपोर्ट में 126वें स्थान पर है। मानसिक स्वास्थ्य को अब भी नज़रअंदाज़ किया जाता है। क्यों? आइए समझते हैं उन वजहों को जो हमें मानसिक स्वास्थ्य से दूर कर देती हैं।
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मज़ेदार तथ्य (या शायद दुखद?): 143 देशों की World Happiness Report में भारत का स्थान है 126वाँ। सोचिए! इतनी तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, इतनी उपलब्धियाँ… फिर भी लोग खुश क्यों नहीं हैं?
सच कहूँ तो, भारत में मानसिक स्वास्थ्य हमेशा से “गंभीर विषय” नहीं माना गया। हम योग और ध्यान की धरती ज़रूर हैं, लेकिन जब mental health की बात आती है, तो समाज इसे अब भी पराया मानता है। नतीजा? लोग चुप रहते हैं, दबाते हैं, और अंदर ही अंदर टूटते जाते हैं।
भारत के कई हिस्सों में मानसिक स्वास्थ्य को अब भी कलंक की तरह देखा जाता है। बड़ी पीढ़ी इसे कमजोरी समझती है, जबकि युवा थोड़े खुले दिमाग़ से सोचते हैं। बहुत जगह तो लोग अब भी इसे भूत-प्रेत या किसी "अलौकिक शक्ति" का असर मान बैठते हैं।
कोई डिप्रेशन या एंग्ज़ाइटी झेल रहा हो तो अक्सर उसे कहा जाता है — “ छोड़ो, मूव ऑन करो, सब ठीक हो जाएगा।” लेकिन क्या सचमुच सब यूं ही ठीक हो जाता है? बिल्कुल नहीं। यही “सप्रेशन” असली बीमारी बन जाता है।
हमारे समाज में इज़्ज़त, पढ़ाई, नौकरी और रिश्तेदारी का बोझ हर किसी पर भारी पड़ता है। अच्छे मार्क्स, बड़ी जॉब, घर-गाड़ी, शादी… और अगर आप थक जाएँ तो लोग कहेंगे, “कमज़ोर मत बनो।”
युवाओं पर तो यह दबाव और भी खतरनाक है। सोशल मीडिया पर दूसरों की “परफेक्ट ज़िंदगी” देखकर खुद को छोटा मानना, लगातार कंपटीशन में फंसे रहना… नतीजा? बेचैनी, नींद न आना, डिप्रेशन। मगर समाज अब भी कहता है — “ पागल तो नहीं हो?”
आज भी बहुत से लोग मानसिक स्वास्थ्य को सिर्फ दो हिस्सों में बाँटते हैं — “ नॉर्मल” या “पागल”। बीच की छोटी-छोटी परेशानियाँ, जैसे हल्की एंग्ज़ाइटी या स्ट्रेस डिसऑर्डर, कभी पहचानी ही नहीं जातीं।
हमारी शिक्षा प्रणाली भी सिर्फ अंकों और रैंक तक सीमित है। बच्चों को कभी नहीं सिखाया जाता कि भावनाएँ कैसे संभालनी हैं, दिमाग़ का ख्याल रखना भी ज़रूरी है।
भारत में धर्म और आस्था हर चीज़ में भूमिका निभाते हैं। कई जगह लोग मानसिक तकलीफ़ को कर्मों का फल या आध्यात्मिक समस्या मानकर केवल पूजा-पाठ या तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं।
गाँवों और कस्बों में तो अब भी मानसिक बीमारियों को जादू-टोना या भूत-प्रेत से जोड़ दिया जाता है। नतीजतन लोग डॉक्टर के पास जाने की बजाय ओझा-तांत्रिक के पास जाते हैं।
भारत में 1.4 अरब आबादी के लिए मानसिक स्वास्थ्य प्रोफेशनल्स की संख्या सिर्फ कुछ हज़ार! ग्रामीण क्षेत्रों में तो हाल और भी खराब है।
सरकारी कार्यक्रम जैसे नेशनल मेंटल हेल्थ प्रोग्राम चल रहे हैं, लेकिन न तो पर्याप्त फंडिंग है, न ही जागरूकता। और सच कहें तो, सरकार की प्राथमिकता अब भी शारीरिक बीमारियों पर ज़्यादा है।
अगर कोई मदद लेना भी चाहे तो थेरेपी और दवाइयाँ इतनी महंगी हैं कि आम परिवार अफोर्ड नहीं कर पाते। बहुत सारी इंश्योरेंस पॉलिसियाँ मानसिक बीमारियों को कवर ही नहीं करतीं। ऐसे में लोग चुप रहना ही बेहतर समझते हैं।
ग्लोबलाइज़ेशन और मॉडर्नाइज़ेशन ने नई परेशानियाँ खड़ी कर दी हैं। तेज़ रफ्तार जीवन, नौकरी का तनाव, टूटते पारिवारिक ढाँचे… और ऊपर से सोशल मीडिया का प्रेशर।
हर किसी को लगता है बाकी सबकी ज़िंदगी उससे बेहतर है। ये “ comparison culture” युवाओं में आत्म-सम्मान को खा जाता है।
लेकिन सब अंधकार ही नहीं है। धीरे-धीरे ही सही, बदलाव आ रहा है। मीडिया अब इस पर बात करने लगा है। दीपिका पादुकोण जैसी हस्तियाँ खुलेआम अपने डिप्रेशन के अनुभव साझा कर रही हैं। उनकी Live Love Laugh Foundation जैसी संस्थाएँ मानसिक स्वास्थ्य को चर्चा में ला रही हैं।
सरकार ने भी Mental Healthcare Act 2017 लाकर मानसिक बीमारियों से जूझ रहे लोगों के अधिकारों को मान्यता दी है।
रास्ता लंबा है, लेकिन शुरुआत हो चुकी है।
भारत की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि मानसिक स्वास्थ्य को अब भी प्राथमिकता नहीं माना जाता। समाज का डर, शिक्षा की कमी, धार्मिक मान्यताएँ और सिस्टम की कमजोरियाँ हमें पीछे खींचती हैं।
लेकिन मुझे विश्वास है — जैसे-जैसे बातचीत बढ़ेगी, जैसे-जैसे और लोग खुलकर बोलेंगे, वैसे-वैसे मानसिक स्वास्थ्य भी भारत की हेल्थकेयर एजेंडा का अहम हिस्सा बनेगा।
और शायद एक दिन, हमारी World Happiness Report की रैंक भी ऊपर जाएगी। 🙂
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